मेरी फितरत है .बासी दाल में नया 'तड़का ' लगाने की .इसे आप खूबी भी समझ सकते हैं .और यह विद्या मैंने अमरीकी रिसाइकल विद्वानों से नहीं सीखी है .यह शुद्ध भारतीय विद्या है. विधा भी. वहां कोई माई का लाल अभी तक सडे गले बासी आलू कों ताजे समोसे में ,और वह भी डंके की चोट पर यह कहते कि जब तक है समोसे में आलू .........और यूरिया कों खोवे की बेहतरीन मिठाई में बदलना नहीं सीख पाया .
दोस्त लोग कहते हैं रिटायर तो हो ही गया है .ढाबा खोल ले .धंधा अच्छा चल निकलेगा .नफा ही नफा .सिर्फ ताजी रोटी के लिए एक तंदूर फिट कर ले .प्रॉब्लम एक ही है . मैं सिर्फ दूसरों की दाल में तड़का लगाना जानता हूँ .अपनी तो दाल ही नहीं गली कभी आज तक . दाल वैसे भी बड़ी मंहगी हो गयी है. नफे की गुंजाईश कहाँ ? तो अक्सर दूसरों की ही दाल ढूँढता रहता हूँ . वह भी बासी हो जाने पर.तडके के लिए .बासी कढी में भी उबाल ला सकता हूँ पर दाल की बात ही और है.
तो लुब्बे लुबाब ये की एक दाल बासी हो चली है . ठंढी भी . (कम से कम मेरा ख्याल तो यही है .वैसे इस विधा के महारती महारथियों की हिन्दी ब्लॉग जगत में कमी नहीं है, मैं कोई चैलेन्ज या दावा नहीं ठोंक रहा ). फिर भी जब इस दाल रूपी इस सत्य की अंतिम कड़ी ' सत्यार्थ मित्र ' ने ही जब चूल्हे से उतार कर बगल कर दिया हो और अगला पकवान भी परोस दिया हो और कमी बेशी बहुत सारे ब्लोगरों ने अपनी कलछुल ,चमचा ,चमची ,हिला डुला कर सब छान मारा हो ,आजमा लिया हो तो सुविधानुसार मान कर चल रहा हूँ कि अब ये दाल भी बासी हो गयी है .दुर्गन्ध कों दूर करने की कूवत तो मेरे 'तडके' में है ही तो परोसा खाईये ,अपच हो तो लाज के मारे किसी कों न बता सीधे ' निठल्ला श्रेष्ठ ' डा. अमर जी के पास पहुँच जाईये. मेरा नाम बता देंगे तो वो ब्लॉग्गिंग रोक कर भी दवा का चूरन मुफ्त में दे देंगे . अब भूमिका लम्बी न करे तो काहे का लिख्खाड .तो अब बात मुद्दे की .
और सब मुद्दे तो करीब करीब निपट ही गए हैं .सिर्फ एक ही अभी आधा अधुरा बचा है उसी पर. सन्दर्भ तो आप अब तक समझ ही गए होंगे अगर आपमें अक्ल होगी तो . ( मूर्खों के लिए मैं लेखन नहीं करता ,उनको ज्ञान परोसने का काम ज्ञानदत्त जी करते हैं ) , फिर भी सन्दर्भ है ' संगम रूपी घाट पर चिठ्ठाकारी भीड़ ' . तो असल मुद्दा है कि ' फोकटिये ' मलाई मार गए , छा गए और हम टापते ही रह गए .कारवाँ गुजार गया गुबार भौंकते रहें . हम में से कईयों कों कभी कभार देश भक्ति का बुखार चढ़ जाता है और देश और जनता के माल की चिंता होने लगती है. भले टेक्स दें न दें या चोरी ही कर ले .तो मुद्दा सरकारी पैसे के दुरुपयोग या सदुपयोग का बचा हुआ है .इसी पर एक ' तड़का'
भैय्ये कितना खर्च हुआ, कहाँ से आया, किसने दिया ,किसको दिया ,किसने लिया ,कितना लिया ,आयोजन कर्ताओं ने किसे बुलाया ,किसे पैसा देकर बुलाया ,किस किस कों न्योता ही नहीं दिया ,किसे बिना पैसे भाडा दिए टरका दिया आदि आदि वगैरह मुद्दे भी उठे .दरअसल मुद्दा यह तो नहीं . भारतमाता कंगाल हो गयी ?
अब हिन्दी की जानवर पट्टी कों इतनी तलछट भी नसीब न हो सरकारी माल की ? यह कहाँ का न्याय है ? एक चुल्लू पानी पी लिया तो ये धिक्कार ? चिट्ठाजगत में जो चिल्ल पों मची उसे देखते हुए और उसका परिणाम देखते हुए तो मैं कहूँगा इतने कम पैसों में हर एक हफ्ते एक गोष्ठी हो जाया करे .अरे यार गाडी भाडा देकर और मच्छर कटवाने पर,एकाध चाय शाय या थोडा बहुत कुछ और पी पिला देने पर भी इतने लोग आये तो मैं कहूँगा कि यह तो हिन्दी की असली जनसेवा हुयी . ( चलो हमें खाए पीये अघाये में शामिल कर लो ).
अगर सरोकार है तो जो अपना कुँआ भरे जा रहें हैं ,समुद्र सोख ले रहें हैं उनसे हिसाब मांग कर देख लो . बाप के ज़माने में सौ पैसे में पचासी गोल हो रहें थे ,बेटे के आते आते नब्बे मारे जा रहें हैं .और उसपे वही बात वही बेशर्मी से बता भी रहें हैं ,जैसे भारतमाता की नकेल किसी दूसरे ने थाम रखी है .उनपर शायद ही चिट्ठाकारों ने कोई हड़बोंग मचाया हो. तो चलिए एक लिस्ट थमा दे रहा हूँ . चिंतन करिए भारत माता के सपूतों .
१-बोफर्स भूल गए ? कितने गए भारत माता के ? ( यानी जनता के टेक्स के ) .उपसंहार ये हुआ कि माल डकार मामा क्वात्रोची बरी भी कर दिए गए . कमिसन खा बेदाग बरी . सत्ता के दलाल ससुरे न जाने किसको क्या बता रहें थे .ये हुआ कि ब्लॉगजगत में कोई टिटिहरी भी कहीं चीखी पता नहीं .हमारे जैसे बहरों कों सुनाने के लिए किसी भगत सिंह ने बम तो क्या पटाखा भी नहीं फोड़ा .
२-अमेरिका ने नकेल कसी तो जर्मन चोर बैंको ने मूतना शुरू कर दिया चोरी का हिसाब . हमारे आका पूछने भी नहीं गए कि हमारे चोरों ने कितना माल जमा कर रखा है वहां .(कैसे पूछते चोरी का माल भी उन्हीं का है ) .अगर कितने लाख खरब रुपैय्ये बताऊँ तो सिर्फ आंकडा बन कर रह जायेगा .एक प्रसिद्द नोबल विजेता अर्थशाष्त्री के अनुमान से भारत का इतना काला पैसा वहां जमा है कि तीन साल तक भारत सरकार और उसकी सभी योजनाओं के लिए धन और राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक की सब तनख्वाह दी जा सकती है उस पैसे से.
३-अमेरिकी नकेल कसने पर जो स्विस बैंक घिघियाने लगे ,हमारे बेमन से भी पूछे जाने पर जो अपमान जनक जबाब देते हैं ,वह पूछा किसी भारतमाता के लाल ने कि हिम्मत कैसे हुयी ऐसा कहने की ?
अब कितनी लम्बी लिस्ट है ये ब्लॉग पोस्ट नहीं ,किताब नहीं , किताबों का विषय है . 'तड़का ' लगाने के लिए समुन्दर भर दाल भरी पडी है .चूल्हे में आग तो हो .
यार खाए पीये अघाये तो नहीं जानता पर काफी खिसियाये हुए लोग नजर आये .जिनसे आया न गया या जिनको बुलाया न गया .यार सरोकारी लोग तो बिन सरकारी हुए भी धमक लेने चाहिए थे . चकल्लस या परिमल जैसी कुछ इलाहाबादी बात बन जाती .तार सप्तक क्या तार हजारा हो जाना चाहिए था.
इसी बात पर एक सुझाव का भी 'तड़का ' मार देता हूँ . चलो अगला सम्मलेन बेसरकारी हो . सब सवारों की अपनी सवारी हो . खुद की दाल रोटी तरकारी हो . खटिया ,मच्छर और मच्छरदानी हो .समीर लाल जैसा अपना खुद का कंघा ,तौलिया ,कच्छा ,लोटा ,बाल्टी, साबुन ,उस्तरा हो. सिर्फ जरूरत भर की जमीन मुहैय्या करा दी जाये और पता बता दिया जाये . कोई समय सीमा न हो .चाहे जमघट कहलाये या सम्मलेन न किसी की जबाबदारी हो . अपनी अपनी दाल लाना 'तड़का ' मैं लगा दूंगा .
तो बोलो है मंजूर ? की जाये हिन्दी सेवा और हिन्दी चिठ्ठाकारी का उत्थान .
तो हो जाए !!
भाई सिद्धार्थ ,आपको ही समर्पित .कारन अगर ,गो कि सम्भावना नहीं है ,बात बन ही गयी तो जुआ आपको ही फिर पहना दूंगा . अब तो अनुभवी भी हो गए हैं :)
सोमवार, 2 नवंबर 2009
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